कानपुर की राजनीति में कैंची, फीता और फ़ाइलों का खेल उजागर!”
*डिस्ट्रिक हेड । राहुल द्विवेदी*
📝 विस्तृत सारांश (फुल वर्ज़न)
लेख ‘मार्शल का बाईस्कोप’
राजनीतिक व्यंग्य के माध्यम से कानपुर की सियासत, सत्ता की अंदरूनी खींचतान, उद्घाटन–फीता–कैंची की राजनीति और विकास योजनाओं में होने वाले खेल पर करारा तंज कसता है। शुरुआत होती है इस सवाल से कि जिनके हाथों में ब्रह्मोस और राफेल की कमान हो, वे कैंची क्यों पकड़ें—यानी बड़े नेता उद्घाटन जैसे छोटे कामों से परहेज़ करते हैं। डिप्टी सीएम और प्रभारी मंत्री भी किनारा कर जाते हैं, और अंत में फीता काटने का काम उसी के हिस्से आता है जिसने पहले भी राजनीतिक “सूची” में कैंची चलाकर कई चेहरे बदल डाले थे।
लेख में बताया गया है कि किस तरह जिलों में ताजपोशी, कुर्सियाँ और पद हमेशा किसी न किसी नेता की पसंद और कैंची से तय होते रहे—कभी जिला पंचायत में, कभी नगर के प्रथम नागरिक की कुर्सी पर। बिठूर से लेकर कारवालोनगर तक, हर जगह “कैंची की धार” किसी न किसी की किस्मत काटती-बनाती रही। कहीं राजा की जगह रानी बैठी, कहीं स्कूटर चलाने वाली मौसी–ताई फिर से रिपीट हो गईं, और कहीं दिल्ली की टिकट काटने में भी कैंची चल गई—लेकिन इस बार दाल नहीं गली।
इसके बाद व्यंग्य उस नए चेहरे पर आता है जिसे शहर की पूरी नब्ज पता है—जो कभी अखबार की कमान संभाल चुका था और अब दिल्ली पहुंच गया है। ऐसे में शहर की दिशा-दशा बदलनी ही है और उथल-पुथल भी तय है।
फिर व्यंग्य मंगल भवन के लोकार्पण की ओर मुड़ता है—जहां कहा गया है कि भवन गरीबों का मंगल करेगा, कन्याओं के विवाह कराएगा, पर अंदरखाने खेल कुछ और हैं। सवाल उठाया गया है कि लाभ फैक्ट्री मालिक खा जाएं और बाकी को बाहर बैठा दिया जाए—ये कैसे न्याय है? शिकायतें ऊपर तक गईं और दिल्ली के मंत्री भी पहले से ही सतर्क हैं, क्योंकि पुराने मेयर के बंगले की फाइल जैसी घटनाएँ उन्हें सबक दे चुकी हैं। बंगला आज भी कब्जे में है, बदले कई मेयर–कमीशनर, पर बंगला नहीं बदला—कनपुरिया तरीकों पर कसा गया व्यंग्य।
इसके बाद लेख नगर निगम–सेठ–एमओयू, जमीनों के कब्जे और सरकारी संपत्ति पर होने वाली सीनाजोरी पर हमला करता है। कहा गया है कि दो करोड़ लगाकर 20 करोड़ की जमीन हथियाना और दिल्ली दरबार को ठेंगा दिखाना अब नहीं चलेगा। दिल्ली दरबार के नेता डीएम–कमीशनर को लगातार चेतावनी देते रहे।
लेख बताता है कि गरीबों के नाम पर शुरू प्रोजेक्ट्स पर कैसे अफसरों और रईसों ने कब्जा कर लिया। जहां बचपन में बच्चे खेला करते थे, वहां अब फ्लड लाइट में अफसर विकेट गिराते हैं—किराया 40 हज़ार हो गया। स्मार्ट सिटी का सपना भी गड्ढों, कूड़े और अतिक्रमण में खो गया।
इसके बाद राजनीतिक टकराव का जिक्र है—राम, लक्ष्मण और सीता जैसे प्रतीक बनाकर बताया गया कि अपनी ही पार्टी में आर-पार की लड़ाई है। विपक्ष भी दावे कर रहा है कि 2027 में आएंगे तो चौंका देंगे। वहीं योगी सरकार का बुलडोज़र कई पुरानी विरासतों पर तैयार खड़ा है।
अंत में लेखक करारा व्यंग्य करता है—विकास, गरीबों की सेवा और स्मार्ट सिटी के नाम पर सब खेल में मेवा खाने की होड़ लगी है। अपने गुरु बताते हैं कि जो बड़े अफसर जा चुके हैं, वे भी हिसाब लेने लौट आते हैं। और आखिर में वही निष्कर्ष—
कुछ तो लोग कहेंगे, क्योंकि जिन्हें चुना ही गया है कहने के लिए, वे क्यों नहीं कहेंगे?




